हर बार कागज़ पर उतर नहीं पाती
कभी कभी प्याज के छिलकों के साथ
उड़ जाती है कविता
कभी झटकते हुए निचोड़े गए कपड़े
छिटक जाती है ...
फिर ढूंढने, समेटने को समय नहीं होता
कभी छूट जाती है
धूप में रखी अचार की बरनी की बगल
और जलते पांव झटपट सीढ़ी उतर जाते हैं
कभी पोंछ दी जाती है
थाल पर रह गई पानी की बूंद के साथ
खाना परोसने की हड़बड़ी में
बर्तन धोते हुए कभी
पानी की थाप पर थिरक
साबुन के साथ फिसल जाती है
दूध पिलाते हुए रात को
बाकी बहुत सी यादों के साथ
उमड़ उमड़ आती तो है
थक कर मोटी हुई पलकों में
मगर लिख दिए जाने से बहुत पहले ही
नींद के साथ ढुलक जाती है कविता