Saturday 24 September 2022

काग़ज़ से पहले

 हर बार कागज़ पर उतर नहीं पाती

कभी कभी प्याज के छिलकों के साथ 

उड़ जाती है कविता


कभी झटकते हुए निचोड़े गए कपड़े

छिटक जाती है ...

फिर ढूंढने, समेटने को समय नहीं होता


कभी छूट जाती है

धूप में रखी अचार की बरनी की बगल

और जलते पांव झटपट सीढ़ी उतर जाते हैं


कभी पोंछ दी जाती है

थाल पर रह गई पानी की बूंद के साथ

खाना परोसने की हड़बड़ी में


बर्तन धोते हुए कभी

पानी की थाप पर थिरक 

साबुन के साथ फिसल जाती है


दूध पिलाते हुए रात को

बाकी बहुत सी यादों के साथ

उमड़ उमड़ आती तो है

थक कर मोटी हुई पलकों में

मगर लिख दिए जाने से बहुत पहले ही

नींद के साथ ढुलक जाती है कविता



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